दरदरी जमी पर,
अनगढ़ सी खीच दी है,
एक लकीर,
जैसे
रिश्ता बनाकर चला आया हूँ
कॅन्वस पर.
छीताराते हुए रंग
सहेजने के चक्कर में,
और बिखर गये हैं.
क्या यही है तस्वीर मेरी?
जाओ और कह दो;
अब में तस्वीरें अक्स के
बहुत दूर चला आया हूँ.
उड़ते रंगों को सहेजकर,
मौसम तलाश करता हूँ.
पेशानी की लकीरें;
बिखेरा करता हूँ,
तकदीर भुलाने के लिए.
बमुश्किल बिकती है तस्वीर कोई;
रसूले-पाक ने क्या किस्मत दी है,
भूंखे तो नहीं मरता हूँ.
बस रंगों को बिखेरा करता हूँ,
और तन्हाई बयान करता हूँ.
ज़ख़्मों को तारपीन और वार्निश से नुमाया करता हूँ.
- सुरेश चौधरी (९ जन १०, भोपाल )
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